विरह-पदावली -सूरदास
गोपिकाओं की उद्विग्नता (श्यामसुन्दर को मथुरा) जाते जानकर व्रज की स्त्रियाँ ऐसी (निस्पन्द होकर) देख रही हैं, मानो चित्रकार द्वारा वे चित्रित की गयी हैं। जो जहाँ थी, वही एकटक देखती स्थिर रह गयी और उनके नेत्र हटाने से भी नहीं हटते। उन्हें अपने शरीर की गति-विधि भूल गयी और पुकारने पर भी वे कानों से सुन नहीं रही थीं मानो (श्याम के साथ) दूध में पानी के समान मिल गयी हों, जो पृथक करने पर पृथक नहीं हो सकता। जैसे मतवाले गजराज के समान (उन्मत्त भाव से) साथ लगी हों, (वे अब) किसी प्रकार रोकने से रुकती नहीं हैं। सूरदास जी कहते हैं कि जिनके चित्त पर प्रेम की आशा का अंकुश (नियन्त्रण) है, वे (प्रेमास्पद को छोड़कर) इधर-उधर नहीं देखते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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