विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) हम (गोपीरूप) मधुमक्खियों ने श्रीव्रजनाथरूप अमृतकोष को बहुत प्रयत्न से संचित करके रखा था, मन रूपी मुख में (उनकी शोभा) बार-बार भरकर नेत्र रूपी मार्ग से हृदय रूपी प्रत्येक कोष में उसे ठूँस-ठूँसकर रखा था। उनके सभी मनोहर अंग अमृतमय पुष्पों के समान थे, उन-उन अंगों में हम अपना चित्त भली प्रकार लगाये रखती थीं और उनके कामदेव को भी मोहित करने वाले उत्तम सौन्दर्य एवं सुयश (रूपी) रस (मकरन्द) में (हम) बार-बार प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त गुप्त प्रेम करके आनन्द लेती थीं। इस अमृत के लिये राजा (कंस) ने (जिन-जिनको यहाँ) भेजा, वे (सब उससे) वंचित रहे; किंतु वही हमारा मधु (रूपी मोहन का आधार) अक्रूर ने हरण कर लिया, अब असहनीय संताप से (हमारा) शरीर बार-बार संतप्त होता रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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