विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (एक गोपी कह रही है-) सखी! सुन, (मेरे) चित्त में यह लालसा बनी (ही) रह गयी कि श्यामसुन्दर ने हँसकर फिर मेरी भुजा नहीं पकड़ी। वे (मिलन के) दिन (अब) फिर कब होंगे तथा ऐसी दशा कैसे सही जायगी ? क्योंकि कन्हैया कहाँ और अब हम सब (उनसे दूर) कहाँ हैं! यह कैसी हवा चली। किससे कहूँ, कुछ कहा नहीं जाता और कहने की चेष्टा करने पर भी कुछ कहते नहीं बनता। हमारा श्यामसुन्दर से जो कुछ सम्बन्ध था, वह श्यामसुन्दर के साथ ही समाप्त हो गया। सूरदास जी कहते हैं कि गोविन्द के गुणों (के स्मरण करने) से दग्ध हुई गोपी की इतना कहते-कहते हिचकियाँ बँध गयीं और जैसे कटा हुआ (सूखा) वृक्ष हो, इस प्रकार खड़ी-खड़ी क्रन्दन करती रही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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