विरह-पदावली -सूरदास
(275) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) अब श्यामसुन्दर अत्यन्त निष्ठुर हो गये हैं। जिस दिन वे मथुरा गये, तब से फिर गोकुल का स्मरण (ही) नहीं किया। हमने कभी कानों से भी उनका संदेश नही सुना, (वे तो) नित्य नया प्रेम करते फिरते हैं। उस नगर की बहुएँ (नायिकाएँ) ऐसी चतुर है कि उन्होंने छल-बल करके मोहन को रिझा लिया (मोहित कर लिया) है। हम जानती हैं कि श्यामसुन्दर हमारे हैं, क्या हो गया जो वे अन्यत्र अनुरक्त हो गये। श्यामसुन्दर का तो कोई दोष नहीं है, उन्हें यह छल-कपट कुब्जा ने सिखाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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