विरह-पदावली -सूरदास
राग जैतश्री (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! हम अपनी भूल कहाँ तक मानें, गोपाल के बिना यह हृदय (फटकर) दो टुकड़े नहीं हो गया। शरीर, मन, सम्पत्ति, भवन, वन और युवावस्था-सब ऐसे (दुःखद) हो गये जैसे सर्प की फुफकार हो। वियोग की दारुण वेदना से हृदय इस प्रकार जल रहा है जैसे दावाग्नि। जिसकी मणि (उसके) मस्तक से छीन ली गयी हो, वह (बेचारा) मूक सर्प क्या कहे ? हम (अब तो) व्रज में इस प्रकार निवास कर रही हैं, मानो बाण के सम्मुख (बाणों की चोट सहती) हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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