विरह-पदावली -सूरदास
(157) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मथुरा के मार्ग की ओर देखते-देखते मेरे नेत्र धुँधले (ज्योतिहीन) हो गये, अवधि (श्याम के लौटने के समय) को गिनते-गिनते अँगुलियों में छाले पड़ गये और उनको पुकारते-पुकारते वाणी (जीभ) थक गयी। वे स्वयं जाकर मथुरा में बस गये और कुब्जा के साथ आनन्द-मौज कर रहे हैं। हमारे स्वामी की यह जोड़ी स्थिर रहे (टूटे नहीं); क्योंकि वह कुबड़ी (है तो) ये तिरछे (त्रिभंग) हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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