विरह-पदावली -सूरदास
(328) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) ‘श्यामसुन्दर एक बिना शरद-ऋतु की रात भारी (कष्टदायिनी) हो गयी। वे स्वामी व्रजभूमि को विस्मृत कर तथा हमें छोड़कर द्वारिका चले गये। (उन्होंने) यमुना का निर्मल जल तो छोड़ दिया और समुद्र के खारे पानी का सेवन करते हैं। अतः पथिक! जिस भाँति वे आयें, वैसी ही बात जाकर कहना, हम तो उनके चरणों पर न्योछावर हैं। (उनसे यह भी कहना-) हम बेचारी व्रजवासिनी अबलाएँ योग की बातें क्या जानें (जो तुमने उद्धव से यहाँ योग का संदेश भेजा था)। स्वामी! तुम्हारे दर्शन के लिये (तुम्हारी यह) प्रिया राधा क्रन्दन करती रहती है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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