विरह-पदावली -सूरदास
(59) (यशोदा जी कह रही हैं-) ‘नन्द जी! वह तुम्हारा बेटा मेरा अत्यन्त प्यारा लाल था, उनको तुम कहाँ छोड़ आये? हे मन्दबुद्धि! तुमने यह बहुत बुरा (कार्य) किया। दोनों बलराम-श्याम (तो) मेरी आँखों के आभूषण थे, जिन्हें देखते ही आनन्द होता था। यह (गोकुल-) ग्राम सरोवर और व्रजवासी कुमुदिनी के समान हैं, जो श्यामसुन्दर के मुखरूपी चन्द्रमा से रहित (हो गये) हैं। अपनी पगड़ी का फंदा गले में डालकर वसुदेव जी के पैर पर (यह कहते हुए) क्यों नहीं गिर पड़े कि- ‘इस बार समस्त लोकों एवं मुनियों के वन्दनीय हमारे स्वामी को (व्रज) भेज दीजिये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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