विरह-पदावली -सूरदास
(99) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) सुना जाता है कि (वहाँ) श्यामसुन्दर (अब) वंशी देखकर लज्जा जाते और लोगों से दूर ही सिंहासन पर बैठे सिर झुकाये मुस्कराते हैं (खुलकर हँसते भी नहीं)। मयूरपिच्छ का बना पंखा देखकर (अन्य) बातों में लगकर अपने मन को बहलाते (दूसरी ओर ले जाते) हैं; और यदि कहीं हमारी चर्चा सुनते हैं तो (उस) चर्चा के चलते ही लज्जित हो जाते हैं। (यही नहिं, वे) चित्र की रेखाओं बनायी जाने वाली गाय की (बात) सोचकर संकुचित हो जाते हैं। जिन्होंने व्रज को (इस प्रकार) विस्मृत कर दिया है तो (वे) दूध-दही कैसे खाते होंगे (अर्थात उन्हें देखकर भी डर जाते होंगे)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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