विरह-पदावली -सूरदास
राग धमार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कहने लगी-) सखियों! जो बात कहने योग्य हो (कही जा सके) वह कहो। प्राणनाथ के वियोग की पीड़ा दूसरा कोई नहीं जान सकता। उस (मिलन के) समय तो हम उनके अधर-सुधारस को ले (पी)-ले (पी), उनका मुख देखकर आनंदमग्न रहती थी, किंतु जो आनन्द शंकर जी और सनकादि ऋषियों को भी दुर्लभ था, (आज हम) उसी आनन्द को खो बैठी हैं। क्या कहूँ, कुछ कहा नही जाता; वह सुख तो स्वप्न हो गया। वे लक्ष्मीनाथ हमारे प्रति निष्ठुर हो गये, किससे रोकर यह (दुःख) सुनाऊँ। यह वियोग की पीड़ा (और) हृदय की वेदना तो जिसे होती है, वही समझता है; (वे) आनन्द के मूल परम सुन्दर हमारा मन चुरा जो ले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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