विरह-पदावली -सूरदास
राग गौरी (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी! मेरे) इन नेत्रों का ही क्या अपराध है (जो ये ही मोहन के दर्शन से वंचित रह रहे हैं; क्योंकि) जीभ (उनका) नाम लेती रहती है और कानों से (उनका) सुयश सुनती रहती हूँ-वह इतना अगम्य एवं अथाह (गम्भीर) है। किंतु भोजन का नाम लेने से भूख कैसे दूर हो सकती है और उसे खाये बिना (उसका) स्वाद क्या जाना जा सकता है ? (ये मेरे नेत्र) सदा एकटक (उस ओर ही देखते) रहते हैं। उधर से कभी छूटते (हटते) नहीं; क्योंकि (उन्हें) श्यामसुन्दर के देखने की (अति) लालसा है। ये (मेरे) नेत्र उस मूर्ति के (दर्शन) बिना दुःखी हैं; बताओ, अब क्या किया जाय। (श्यामसुन्दर!) एक बार (पुनः) व्रज आकर और कृपा करके (अपना) उत्तम दर्शन (इन्हें) दे जाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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