विरह-पदावली -सूरदास
(329) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) कामदेव (अब तो) व्रज पर मँडराता (चक्कर काटता) रहता है अतः पथिक! श्यामसुन्दर से (जाकर) कहना कि आकर अपने (इस) धाम की रक्षा करें। वह कामदेव मेघरूपी कमान (तोप) में जल रूपी बारूद भरकर (उसमें) बिजली रूपी पलीता देता है और (उन मेघों का) गर्जना और तड़कना (ही) मानो गोला हैं। अब थोड़े समय में ही (वह इस) किले को (जीत) लेगा। ‘ले लो! ले लो!’ (यह पुकार) उसके सब बंदीजन-कोकिल, पपीहे और मयूर कर रहे हैं तथा मेढकों का समुदाय जो क्षण-क्षण पर चारों ओर शब्द कर रहा है, वह भी मानो वही संकेत-ध्वनि कर रहा है। उद्धव रूपी भौंरा (तो उसी कामदेव का) जासूस (बनकर प्रथम ही) यहाँ (सब दशा) देख गया कि हमारे हाथ से अब धैर्य छूट गया है। अब यदि वे हमको अपना समझकर (रक्षा करना) चाहें तो आकर रक्षा करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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