विरह-पदावली -सूरदास
(189) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! (सच्ची) लगन की यही पहिचान (स्वरूप) है, यदि हृदय में लगन (प्रेम) है तो कुल का संकोच क्या करेगा। पतिंगे ने दीपक से प्रेम किया तो आकर उसे अपना शरीर सौंप दिया तथा उसकी ज्वाला में जलते समय भी हिचका नहीं, प्राणों की हानि सहन कर ली। चकोर ने चन्द्रमा से प्रीति की तो उसने अंगारे चुगने में भी कुछ (पीड़ा) नहीं मानी। (अरे) प्रेम के कारण ही मृग संगीत-ध्वनि के रस में मोहित होकर ब्याध के बाण से बिद्ध हो जाता है। (जिस प्रेम ने) भौंरे को कमल के प्रति प्रेम जानकर (उसे) सब गुणों के बीच आकर बाँधा, वही सुख देने वाला प्रेम (हमारा) श्रीगिरधरलाल से है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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