विरह-पदावली -सूरदास
राग नट (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! सुनो, व्रजनाथ के वे उपकार जो (कृपापूर्वक उन्होंने हम पर) किये, हृदय से ओझल नही होते। उन्हें सोचकर प्रारम्भ से कह रही हूँ। क्रोध करके मेघ व्रज पर वर्षा करने आये, अतः देवराज इन्द्र के कारण हम खतरे में पड़ गये। उस समय नन्दनन्दन ने हम सबको व्याकुल समझकर तुरंत गिरि गोवर्धन को नख पर उठा लिया। एक दिन चिताकर्षक वन में हम सब रात के समय जुटी हुई थीं, उस समय (वहाँ) धूलि उड़ने लगी और पत्ते टूटने लगे। अतः (उन टूटते हुए पत्तों का शब्द) सुनकर और हमें शंकित देखकर घनश्याम ने हाथ के ईशारे से ही उस (आँधी) को दूर कर दिया। बलवान कंस ने मथुरा से बहुत-से अत्यन्त बलवान दैत्य (व्रज) भेजे; किंतु हमारे स्वामी ने युद्ध में उन सबको मार दिया, असुर कंस से कुछ भी करते नहीं बन पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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