विरह-पदावली -सूरदास
(122) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) कन्हैया को इस प्रकार कब देखूँगी कि उनके मस्तक पर मयूर (-पिच्छ की) चन्द्रिका, कन्धे पर कम्बल और हाथ में छड़ी सुहाती होगी। दिन बीत जाने पर (संध्या के समय) गायों के साथ आते हुए वे अत्यन्त सुशोभित होते होंगे। ग्राम के पास पहुँचकर कानों में अँगुली डालकर मोहन अहीरी राग (बिरहा) गा रहे होंगे। सखी! अब चाहे कितना भी प्रयत्न कोई क्यों न करे, उनके दर्शन के बिना (अब) प्राण किसी प्रकार रहते नहीं; (क्योंकि) हमारे स्वामी (लौटने की) जो अवधि निश्चित कर गये थे वह (भी) पूर्ण हो गयी और वे नहीं आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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