विरह-पदावली -सूरदास
राग गौरी (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-सखी!) आज रात भर मुझे नींद नहीं आयी, जागते हुए आकाश के तारे गिनती और जीभ से ‘गोविन्द हरि’ (यह नाम) रटती रही। (मोहन की) वह देखने की भंगी, वह रथ पर बैठने का उनका ढंग जबकि उन्होंने अक्रूर का हाथ (रथ चढ़ने के लिये) पकड़ा, (वह सब मैं) मन्त्रमुग्ध-सी खड़ी देखती रही और कामदेव से जलायी जाने के कारण कुछ कह नहीं सकी। सखी! (मैं) इतने में ही व्याकुल हो गयी और आर्यपथ से भी भ्रष्ट हो गयी (अपने स्वामी के साथ न जा सकी)। हमारे स्वामी जहाँ गये हैं, वह मथुरा नगरी (यहाँ से) कितनी दूर है ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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