विरह-पदावली -सूरदास
(207) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) चारों ओर से घनघोर बादल (उमड़ते) इस भाँति दिखायी पड़ रहे हैं, मानो कामदेव के मतवाले हाथियों ने बलपूर्वक अपने बन्धन तोड़ डाले हैं। उनका सुन्दर काला शरीर है, वे थोड़ी-थोड़ी (इस भाँति) वर्षा करते हैं (जैसे) उनके गण्डस्थल से मद टपक रहा हो। वे पवनरूपी महावत के अंकुश मारकर मोड़ने (लौटाने) पर भी न तो मुड़ते हैं और न रुकते हैं। बगुलों की पंक्ति ही मानो उनके दाँत हैं, जो सरोवररूपी उनके वक्षःस्थल की सीमा फोड़कर बाहर निकल आये हैं। अस्तु, बिना समय के ही बलपूर्वक नेत्रों का जल निकलकर वक्षःस्थल पर बँधी कंचुकी के बन्धनों को डुबा रहा है। (जब इन्द्र ने वर्षा की थी) तब तो ऐरावत के स्वामी इन्द्र ने आकर व्रजराज (श्यामसुन्दर) के हाथ जोड़े थे, किंतु अब सुनो, कन्हैयारूपी सिंह के बिना (भय से) हमारे शरीर ऐसे गले (क्षीण होते) जाते हैं, जैसे ओले गलते हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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