विरह-पदावली -सूरदास
राग सोरठ (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) तब से (मेरे) नेत्र अनाथ हो गये, जब से हमारे मदनगोपाल व्रज को छोड़कर अन्यत्र चले गये हैं। उसी दिन से वर्षा-ऋतु (अपना) दल सजाती (सेना बटोरती) युद्ध के नगाड़े बजाने लगी है और उसके वीर योधा मयूर अपने मुख से (वाणीरूपी) बाण छोड़कर हमें दिनों-दिन नये-नये दुःख देते हैं। कामदेव (भी) यह सुन और विचारकर (हम) अबलाओं के शरीररूपी किले आकर ले लिये (उन पर अधिकार कर लिया)। जिन्होंने श्यामसुन्दर के साथ रहने पर सुख दिया था, अब उन्होंने ही मिलकर शत्रुता ठान ली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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