विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) अब हम सर्वथा अनाथ हो गयीं। जैसे मधु का छत्ता तोड़ लेने पर मधुमक्खियाँ हो जाती हैं। व्रजनाथ के बिना हम भी वैसी ही हो गयी हैं। उनके अधरामृत पाने की पीड़ा (लालसा) से हम मरती रहीं और उसे बचपन से सँजोकर रखा था, सो अक्रूर उसे अनायास (बिना परिश्रम) ही भंगकर (हमसे) छीन ले गया। जब तक हम (आँसू पोंछने के लिये अपने) हाथों से नेत्रों की पलकें मलने लगीं, तब तक (तो मोहन) दूर चले गये। सखी! हमारी आँखों में रथ के पहियों की धूलि डालकर, हमें अंधी बनाकर वे भाग निकले। कृपण (कंजूस) की सम्पत्ति के समान हमने रात-दिन उसे (श्यामसुन्दर के अधरामृत को) संभालकर रखा, उसका कभी उपभोग नहीं किया। (हम उसका उपभोग करते कैसे ?) विधाता ने तो उसे कुब्जा के मुख के योग्य (उसके उपभोग के लिये) रच (नियत कर) रखा था! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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