विरह-पदावली -सूरदास
राग मारू (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) अब मुझे रात्रि देखते ही डर लगता है और (इस कारण) मेरा मन बार-बार शरीर से व्याकुल होकर निकल-निकलकर भागता है। (मेरा) शरीर पूर्व दिशा में पूर्ण चन्द्रमा को (उदित) देखकर (इस भाँति) संतप्त हो उठा है, मानो कामदेव ने वियोगिनियों पर क्रोध कर (अपना मुख) लाल बना लिया है। (उस चन्द्रमा की) कालिमा ही मानो धनुष के समान टेढ़ी भौंहें हैं, (जिन पर) अत्यन्त क्रोधपूर्वक उसने बाण चढ़ा लिया है और चारों ओर किरणों का फंदा फैलाकर वियोगिनियों को बाँध लेना चाहता है। अरे दुष्ट (चन्द्र)! सुन, हमारे प्राणपति वे ही हैं, जिनका सुयश सारा विश्व जानता है। जिसने (इसे) समुद्र में डूबने से बचाया (समुद्र मन्थन के समय निकाला) उस उपकार को भी यह नहीं मानता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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