गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 8
वास्तव में जैसे भक्तों के लिए वरदान के निमित्त से भगवान का अवतार होता है वैसे ही महावाक्य के निमित्त से जब हमारी चित्त-वृत्ति में परब्रह्म परमात्मा का अवतार होता है तब वह अवतीर्ण परमात्मा ही अविद्या नाश करता है। परमात्मा अपने स्वरूप में रहता हुआ अविद्या का नाश नहीं करता। जब वह वृत्यारूढ़ चेतन के रूप में अवतरित होता है तभी हमारी अविद्या निवृत्त करता है। जिसको वेदान्त का संस्कार हो वह इस बात पर ध्यान दे। ब्रह्मह्रद में उतरने के लिए, ब्रह्म के महासमुद्र में अवतरण के लिए जो सोपान का- सीढ़ी का काम देता है उसी को अवतार बोलते हैं। अवतार माने बड़ी भारी गहराई में उतरने का साधन। विषयों से गहरी इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से गहरा अन्तःकरण, अन्तःकरण से गहरा साक्षी और साक्षी से गहरे अद्वितीय परब्रह्म के साक्षात्कार के लिए परमात्मा के अवतार की आवश्यकता होती है। जब परमात्मा कौशल्या के राम बनते हैं, देवकी के कृष्ण बनते हैं और हमारी वृत्ति में आरूढ़ चेतन बनते हैं तब वे हमारे बन्धन को काटते हैं, अविद्या को निवृत्त करते हैं। अवतार के बिना तो अविद्या की निवृत्ति हो ही नहीं सकती। इसी सिद्धान्त को प्रकट करने के लिए उसको वेदान्त में आरूढ़-चेतन और भक्ति में अवतार बोलते हैं। अवतार की मान्यता के बिना, भक्ति सिद्धान्त के द्वारा, वेदान्त की व्याख्या नहीं हो सकेगी। अवतार ही उसकी मूल पृष्ठभूमि है। एक बात और है। आप लोग इससे डरें नहीं। जीव और ईश्वर दोनों भाई-भाई हैं। इनमें यह बँटवारा हुआ था कि रूप ईश्वर के पास रहेगा और नाम जीव के पास। ईश्वर ने अपने रूपों को अब नाम के अधीन कर दिया और जीव से कहा कि जब तुम नाम लेकर पुकारोगे तो रूप हाजिर हो जायेगा। यही है अवतार की प्रक्रिया। जितने गुण जीव में होते हैं उतने ही भगवान में भी होते हैं। हाँ, उतने ही-न कम न ज्यादा, गिनती में बराबर-बराबर। क्योंकि दोनों एक ही तत्त्व हैं। जीव उसको कहते हैं जो गुण-दोषों को मैं मेरा मानकर स्वीकार कर लेता है और ईश्वर उसको कहते हैं जो इन गुण-दोषों के प्रकट होनेपर भी अपने ज्ञान का बाध नहीं करता। गुण-दोष उसकी माया में दीखते रहते हैं और वह सर्वज्ञ बना रहता है। इसलिए हम देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी माया का दूध उसी प्रकार पीना चाहते हैं जैसे जीव पीना चाहता है। वे दूध के लिए वैसे ही रोते हैं जैसे जीव रोता है। जैसे जीव कभी गुस्से में आकर गड़बड़ी करता है तोड़-फोड़ कर देता है वैसे ही श्रीकृष्ण भी करते हैं। जैसे जीव भागता है वैसे ही ईश्वर भी भागता है। जैसे जीव पकड़ा जाता है वैसे ही ईश्वर भी पकड़ा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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