गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 8
ईश्वर बिना बीज के सृष्टि नहीं बनाता- सूर्यचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। यदि कहो कि ईश्वर स्वतन्त्र रूप से सृष्टि क्यों नहीं बनाता? वह तो सर्वशक्तिमान है, जब जैसी चाहता वैसी सृष्टि उत्पन्न हो जाती। तो, इसका उत्तर यह है कि यदि ईश्वर अपने मन से, बिना किसी निमित्त से सृष्टि बना देता तो एक को दुःखी, एक को सुखी कैसे बनाता एक को गीध एक को गाय कैसे बनाता? यदि ईश्वर स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी मरजी से ही किसी को बड़ा, किसी को छोटा, किसी को दुःखी, किसी को सुखी बनाता है तो वह एक वर्ग के साथ पक्षपात और दूसरे वर्ग के साथ अन्याय करता है। सृष्टि-निर्माण का कोई-न-कोई निमित्त तो होना चाहिए न! किन्तु ऐसा है नहीं। सृष्टि की धारा अनादि परम्परा से बह रही है और यहाँ सब लोग अपने-अपने स्वभाव के अनुसार बरत रहे हैं। कुमुदिनी कुमुदिनी में-से निकलती है और वह रात्रि के समय चन्द्रमा को देखकर खिल जाती है। कमल से कमल होता है और वह सूर्य को देखकर विकसित हो जाता है। उसमें कर्तव्य की सृष्टि किसी ने नहीं को- ‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ यह तो उसका स्वभाव है। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चारों वर्णों के कर्मों को स्वभावज बताया और कहा कि वे सब अपने-अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करते हैं- ब्रह्मकर्म- स्वभावज, क्षात्रकर्म- स्वभावज, वैश्यकर्म- स्वभावज और शूद्रकर्म- स्वभावज। श्रीरामानुजाचार्य ने स्वभाव शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है कि जन्म-जन्म के अभ्यास से जो संस्कार संचित है, उनसे व्यक्ति के जीवन में स्वभाव का उदय होता है और वह अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करता है। अब एक बात आपको सांख्यदर्शन की बताते हैं, हमारे दर्शन पृथक-पृथक हैं और सब अलग-अलग ढंग से अपने-अपने सिद्धान्त की स्थापना करते हैं। सांख्य का कहना है कि संसार में जितनी वस्तुएँ बनती हैं वे दो तरह से बनती हैं। एक तो प्रकृति के स्वभाव से बनती है- जैसे आकाश, वायु, जल, पृथ्वी और स्त्री-पुरुष आदि। परन्तु इनमें मेरा-तेरा का जो सम्बन्ध है- यह प्रकृति नहीं बनाती। प्रकृति में पेड़ बने हुए हैं। कौन पक्षी किस पेड़ को पसन्द करता है, किस पर बैठता और कहाँ घोंसला बनाता है, इससे प्रकृति को काई सम्बन्ध नहीं। यह तो पक्षी की अपनी पसन्द है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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