गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 8
कल आपको सुना रहा था जो चार प्रकार के भक्त होते हैं, उनमें-से ये लक्षण केवल ज्ञानी-भक्त में पूरी तरह से रह सकते हैं। इसलिए यहाँ ज्ञानी-भक्त का लक्षण बताया गया है। दूसरे अध्याय में कर्म की प्रधानता से स्थितप्रज्ञ का लक्षण है।
राग-द्वेष से रहित होकर संसार का सब व्यवहार करते हुए, मनुष्य को शान्ति प्राप्त हो जाती है। बुद्धि स्थिर होनी चाहिए। निश्चय का पक्का होना चाहिए और काम करता हुआ होना चाहिए। तेरहवें अध्याय में जिज्ञासु का लक्षण बताया है। ‘अमानित्वम् अदम्भित्वम् अहिंसाक्षान्तिमार्जवम्।’ चौदहवें अध्याय में विवेक की प्रधानता से, ज्ञान की प्रधानता से, ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति। गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।’ कहा गया है। वहाँ ज्ञान की प्रधानता से ज्ञानी पुरुष का वर्णन है। रात आये, दिन आये, रोशनी आये, प्रवृत्ति आये, मोह आये, ज्ञानी पुरुष ज्यों-का-त्यों अपने स्वरूप में मगन। अठारहवें अध्याय में जो साधक है, उसकी प्रधानता से- बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च। ध्यान योगी को कैसे रहना चाहिए यह बताया। बारहवें अध्याय में भगवान लक्षण तो ज्ञानी का ही बताते हैं परन्तु उसमें एक विशेषता जोड़ देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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