गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 3
प्रश्न: ‘अनन्ययोगेन’ और ‘अव्यभिचारिणी’ कहकर भक्ति की किन विशेषताओं पर बल दिया गया है? क्या केवल भक्ति कहना पर्याप्त न होता? ऐसे कुछ भक्तों के उदाहरण देकर भक्ति के इस विशिष्ट रूप को स्पष्ट करें। उत्तर: सत्य का साक्षात्कार करने के लिए पहले तो अभिमान का परित्याग होना चाहिए। ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया।’ परसों सरलाजी ने ध्यान दिलाया था। प्रणिपात का अर्थ होता है, अभिमान-त्याग। सेवा का अर्थ होता है भक्ति। और परिप्रश्न का अर्थ है जिज्ञासा- जानने की इच्छा होना। जिज्ञासा-बिना यदि दूसरे से कुछ सुने भी तो उसको ठीक-ठीक नहीं ग्रहण कर पाता है या सुनी हुई अदृभुत-से-अद्भुत, नवीन-से-नवीन बात को भी अपनी जानकारी के अन्दर ले आता है इसलिए उसको अज्ञान का ज्ञान नहीं होता। अज्ञान के ज्ञान में निरभिमानता सहायक है। और जब तक वस्तु का यथार्थ अनुभव न हो जाय तब तक दम्भ करना कि मैं जान गया, अनुभव हो गया, ईश्वर मिल गया, ऐसा दम्भ नहीं आना चाहिए। अधूरेपन में ही पूरेपन का प्रदर्शन नहीं आना चाहिए। और मन, वचन, कर्म से किसी को दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए। क्योंकि जब दूसरे को दुःख पहुँचता है तो उसके मन में जो हाय की वृत्ति उठती है वह दूसरे के ज्ञान पर भी परदा डाल देती है और दूसरे से कोई अपराध हो जाय तो उसको क्षमा करना चाहिए। क्षान्ति-यदि एक ने अपराध किया और दूसरे ने उसे दण्ड दिया तो तीसरा उसको भी दण्ड देगा और चौथा तीसरे को दण्ड देगा, पाँचवा चौथे को दण्ड देगा। अपराध की परम्परा बढ़ती चली जायगी और यदि एक ने अपराध किया और दूसरे ने क्षमा की तो अपराध की परम्परा वहीं समाप्त हो जायगी। जीवन में सरलता चाहिए। जिज्ञासु, शिष्य को टेढ़ा नहीं होना चाहिए। मन में कुछ है, कर्म में कुछ है, वचन में कुछ है। ‘मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्।’ यह दुरात्मा की पहचान है। ‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महातमनाम्।’ जो मन में, वही कर्म में, वही वचन में-यह महात्मा की पहचान है। अर्जुन जो गीता के श्रवण के मुख्य अधिकारी हैं, वे ‘अर्जुन’ इसलिए कहे जाते हैं कि एक तो वे ज्ञानार्जन के लिए तत्पर हैं, दूसरे सरल चित्त हैं-‘ऋजुत्वात् अर्जुनः’। ये सद्गुण अपने जीवन में कैसे आवें-उसके लिए आचार्य की उपासना चाहिए। ‘आचार्योपासनम्।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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