गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 5
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह हृदयंगम कराना चाहते हैं कि मनुष्य कर्म तो कर किन्तु कर्म से लिप्त न हो। कर्म स्वयं जड़ है। चैतन्य आत्मा के साथ इसका लेप होना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। चैतन्य आत्मा एक जन्म का कर्म दूसरे जन्म में ले जाये या एक समय का कर्म दूसरे समय में करें, ऐसा उसका सहज स्वभाव नहीं और न कर्म में इतना सामर्थ्य है कि, वह आत्मा के साथ लग जाये, जुड़ जाये। यह तो अविद्या महारानी ही कुछ ऐसा कर रही हैं कि जड़ कर्म भी चेतन आत्मा के साथ, अपने विजातीय के साथ चिपकता हुआ मालूम पड़ता है। स्थान-स्थान में, क्षण-क्षण में संकल्प-संकल्प में कर्म छूटते जो रहे हैं, परन्तु फिर भी चेतन आत्मा समझती है कि हमने यह किया हमने यह नहीं किया। हमने यह विहित किया, हमने यह निषिद्ध किया। इसका कारण यही है कि चेतन आत्मा अपने को जड़ अन्तःकरण के साथ तादात्म्यापन्न करके जड़ कर्म को अपना कर्म समझती है और उसका अभिमान करके स्वयं आबद्ध हो जाती है। अतः कर्म करने की यह प्रणाली है कि मनुष्य कर्म तो करे, परन्तु उसके साथ आबद्ध न हो, लिप्त न हो। अर्जुन युद्ध तो करे, किन्तु युद्ध के पाप-पुण्य के साथ अर्जुन का सम्बन्ध न हो- यह युक्ति भगवान् श्रीकृष्ण बताना चाहते हैं- योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: । मनुष्य- कुर्वन्नपि- काम करे, किन्तु काम से लिप्त नहीं हो। यह कैसे होगा, तो इसके लिए उपाय बताया कि योगयुक्तः हो जाओ। बुद्धि खोकर काम नहीं करो, बुद्धि बनाये रखकर काम करो। संक्षेप में बुद्धियोग को योग और सांख्ययोग का सांख्य कहते हैं। एक तो बुद्धि सावधान रहे, दूसरे विशुद्धात्मा अर्थात अन्तःकरण शुद्ध रहे। मन स्वच्छ रहे, निर्मल रहे, अपने वश में रहे, इन्द्रियाँ स्वच्छन्द विचरण न करें। इतनी बातें तो अपने लिए कहीं। फिर बोले कि अपने को आप तक सीमित, परिच्छिन्न मत करो। अपितु- सर्वभूतानाम् आत्मभूता आत्मा यस्य - सबकी आत्मा ही मेरी आत्मा है, इस निश्चय पर स्थिर हो जाओ। सर्वात्मभाव को सुदृढ़ करने पर ही किसी को हानि नहीं पहुँचाओंगे। इसका अर्थ है कि इन्द्रियाँ उच्छृंखलता से जो काम करती हैं उनका लेप होता है। मन वश में न रखकर जो काम किया जाता है, उसका लेप होता है। अन्तःकरण अशुद्ध करके जो काम किया जाता है, उसका लेप होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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