गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 10
महाराजश्री
अनजान में अज्ञान से हम त्रिगुण के साथ मिल गये हैं। कभी आलस्य, प्रमाद, निद्रा से मूढ़ हो जाते हैं - यह तमोगुण है। माने हम अपने मैं को आलस्य, निद्रा, प्रमाद के साथ एक कर देते हैं। कभी लोभ-कर्म-प्रवृत्ति, अशान्ति, तृष्णा आदि के वेग के साथ अपने को मिला देते हैं और उन्हीं को अच्छा समझकर उसमें डूब जाते हैं। कभी सुख मिलता है, प्रकाश होता है, तो हम अपने मैं को उसके साथ मिला देते हैं। चौदहवें अध्याय में पहले विवेक के द्वारा इन अवस्थाओं से अलग स्वरूप को समझने का आदेश, उपदेश, संदेश दिया है। इसी को उपनिषद् कहते हैं, और यह बताया कि - नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति। विचार-दृष्टि का उदय हो जानेपर, विवेक-दृष्टि का उदय हो जाने पर जब द्रष्टा यह देखने लगता है कि गुणों के अनुसार ये सब कर्म होते हैं ओर ‘आत्मानं गुणेभ्यः पृथग् वेत्ति’ आत्मा को इन अवस्थाओं से इन गुण की वृत्तियों से अलग अनुभव करता है, तब वह मुझसे एक हो जाता है। ‘मद्भावं सोऽधिगच्छति’। परन्तु यह विवेक टिकाऊ तब होता है जब मन में वैराग्य हो। वैराग्य के बिना विवेक निर्बल होता है, कमज़ोर होता है, हम समझते तो हैं कि इस समय हमको सोना नहीं चाहिए, आलस्य नहीं करना चाहिए, या तृष्णा के जाल में इतना नहीं फँसना चाहिए या हर समय यह ज्ञान और सुख की स्थिति नहीं बनी रह सकती, तो इसके पीछे दुःखी होंगे। विवेक का उदय होने पर यह समझ में तो आ जाता है परन्तु वैराग्य न होने के कारण विवेक में स्थिरता नहीं होती। माने वृत्ति टिकती नहीं है, दृष्टि बनती नहीं है। इसलिए गुणातीत के लक्षण के पहले विवेक और वैराग्य की प्रधानता से गुणातीत होने का उपाय बताया और गुणातीत के लक्षण के अन्त में भक्ति के द्वारा गुणातीत होने का उपाय बताया। इसमें अन्तर क्या है? जैसे आप अज्ञान में किसी के साथ मिल जाते हैं, तो समझ-बूझकर आपको अलग कर लिया ओर उसके बाद आपकी दृष्टि ऐसी बदली कि जिससे आपने अपने को अलग किया था उसमें भगवान का दर्शन होने लगा। वेदान्त की भाषा में इसको ‘अन्वय’ और ‘व्यतिरेक’ बोलते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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