गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 8
चतुर्थ अध्याय के आरम्भ में स्वच्छन्द वाङ्मय अवतार प्रकट हुआ। अर्जुन ने, जैसा कि दूसरी-तीसरे अध्यायों में प्रश्न किया, चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में पूछा कि भगवन, आपकी यह जो कर्मयोग-साधना है, इसकी कोई परम्परा अथवा सम्प्रदाय है कि नहीं? आपके ये नवीन क्रान्तिकारी और प्रगतिशील विचार हैं अथवा प्राचीन परम्परा या सम्प्रदाय के साथ भी इनका कोई सम्बन्ध है? अर्जुन के इन प्रश्नों के सन्दर्भ में यह ध्यान देने की बात है कि प्रगति परम्परा को स्वीकार नहीं करती। जहाँ परम्परा प्रगति पर हावी होना चाहती है, वहाँ संघर्ष होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने वचनों की अवतारणा की। देखो, अवतार हो रहा है भगवान की वाणी का। वे बिना पूछे ही बोल रहे हैं। वैसे धर्मशास्त्र का नियम यह है कि पूछने पर ही किसी को सलाह देनी चाहिए- नापृष्टः कस्यचित् ब्रूयात्।।[1] मनु जी कहते हैं कि बिना पूछे जन-जन को सलाह मत दो। अन्यथा तुम्हारी सलाह की कोई क़ीमत नहीं रहेगी। यदि कोई अन्यायपूर्वक पूछ रहा हो तो उसको भी परामर्श मत देना। परामर्श के स्थान पर मौन रहना भी दोष है और आवश्यकता से अधिक परामर्श देना भी दोष है; परन्तु कहीं-कहीं ऐसा नियम है कि यदि कोई अपना अत्यन्त वात्सल्य-भाजन हो तो उसे बिना पूछे भी सलाह दे देनी चाहिए। ब्रूयु स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत्।[2] अनापृष्टमपि ब्रूयात् जब यह दिखायी दे कि कोई आदमी गलत काम कर रहा है और गड्डे में गिरने वाला है तो उसे बिना पूछे सलाह देनी चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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