गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 4
जैसा कि पहले कहा गया, हमारी बुद्धि डावाँडोल न हो स्थिर हो, प्रतिष्ठित हो, निष्ठावती हो- इसके लिए भगवान ने छह बातों पर बल दिया। अपने में हीनता का भाव न हो, आत्मतुष्टि हो- आत्मन्येव च संतुष्टः। हम इसके बिना नहीं रह सकते, उसके बिना नहीं रह सकते। हमारा जीवन पराधीन है। हम दीन-हीन हैं। इस प्रकार की कल्पना मन से निकल जाये। यह पहली बात है। जीवन के प्रवाह में प्रिय-अप्रिय आते-जाते रहते हैं। उनसे उद्विग्न नहीं होना और उनकी आकांक्षा भी नहीं करना- यह दूसरी बात है। तीसरी बात यह हुई कि जिसको हम अपने जीवन में शुभ या अशुभ मानते हैं उनमे हमारी आसक्ति इतनी प्रबल नहीं हो जानी चाहिए कि हम एक शुभ के लिए दूसरे शुभ का बलिदान करने लग जायें। जो श्रौत-साधन हैं वे भी दूसरो को दुःख पहुँचाये बिना ही होने चाहिए। जो धर्म दूसरे धर्म को बाधा पहुँचाकर सम्पन्न होता है वह धर्म नहीं कुधर्म है। अविरोधी धर्म है, वही सच्चा धर्म है-
चौथी बात यह बतायी कि अपने जीवन में संयम होना चाहिए। जीवन में जैसे निद्रा आवश्यक है वैसे ही विश्राम भी आवश्यक है। हममें यह शक्ति होनी चाहिए कि हम जब चाहें तब अपनी इन्द्रियों को वश में कर सकें। इससे बुद्धि अपने आप स्थिर हो जायेगी। पाँचवीं बात यह बतायी कि हमारी जो ऐन्द्रिक शक्तियाँ हैं वे व्यवहार में भी विषयों के पराधीन न हों-युक्त आसीत मत्परः। मनुष्य सावधान होकर रहे, विषय-भोग के पराधीन न हो जाय। इसके बाद यह प्रश्न उठाया कि क्या केवल विषय-त्याग से ही मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो सकती है? इस सम्बन्ध में गीता का निर्णय है कि केवल त्याग से बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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