गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 4
प्रश्न: एक प्रबुद्ध जिज्ञासु ने अंग्रेजी में प्रश्न भेजा है जिसका हिन्दीकरण इस प्रकार है-सारे विश्व में सृष्टि के उद्भव और उद्देश्य के बारे में बड़ा विवाद है। चौदहवाँ अध्याय इस दिशा में प्रकाश डालता है। पू. स्वामीजी महाराज यह बताने के लिए अनुरोध है कि आत्मा का किस प्रकर उस विराट् से सीधा सम्बन्ध है और किस प्रकार ईश्वर बीज का प्रदाता है। उत्तर: जैसे लकड़ी के बने कुर्सी और मेज लकड़ी से सम्बन्ध रखे बिना नहीं हो सकते, जैसे नीबू की खटास, इमली की खटास, गन्ने की मिठास-जल से सम्बन्ध रखे बिना नहीं हो सकते। गन्ने में भी रस है। नीबू में भी रस है, इमली में भी रस है, आम में भी रस है। बना रस के तो चावल, गेहूँ कुछ नहीं होते। परन्तु वे यदि समष्टि जल से सम्बन्ध न रखते हों तो उनका कोई अस्तित्व नहीं हो सकता, न खट्टा न मीठा, न नमकीन, न कडुवा, न तीता, न कसैला जैसे छहों रस और उनके मिश्रण से बने हुए अनेक प्रकार के रस जल के साथ सम्बन्ध रखते हैं। जैसे अनेक प्रकार के रूप चाहे वे कृत्रिम हों, चाहे स्वाभाविक हों, प्रकाश से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे किसी प्रकार की वायु चाहे वह शरीर के भीतर हो, चाहे बाहर हो, चाहे भोंपू में हो, समष्टि वायु के साथ सम्बन्ध रखे बिना नहीं हो सकता। जैसे कोई भी शब्द आकाश से सम्बन्ध रखे बिना नहीं हो सकता। वैसे ये अलग-अलग जो वस्तुएँ हैं किसी एक सत्ता के तादाम्य के बिना नहीं हो सकती है। कुछ दार्शनिक मानते हैं कि समवाय सम्बन्ध से सबमें सत्ता अनुगत होती है-जैसे कपड़े में सूत। कोई मानते हैं समवाय-घटित सामान्याधिकरण्य से सत्ता सबमें अनुगत होती है। कोई मानते हैं सत्ता तादात्म्य से अनुगत होती है। तो प्रबुद्ध श्रोता को, जिज्ञासु को यह समझना चाहिए कि पृथक्-पृथक् कीट-पतंग आदि प्राणियों में, पशु-पक्षी आदि प्राणियों में, मनुष्यादि प्राणियों में जो एक चेतना अनुगत है वह अपनी समष्टि चेतना से सम्बन्ध रखती है। पूर्णता से सम्बन्ध रखे बिना कोई परिच्छिन्नता हो ही नहीं सकती। परिच्छन्नता के बिना पूर्णता होती है। परन्तु पूर्णता के बिना परिच्छिन्नता नहीं होती। इसी प्रकार चाहे कोई अपने अन्तःकरण में सोचे ईश्वर है और कोई सोचे ईश्वर नहीं है। ये दोनों प्रकार के विचार जिस चेतना से प्रकाशित होते हैं, आस्तिक में भी और नास्तिक में भी, वह महाचैतन्य, वह पूर्णचैतन्य-सर्वव्यापी है। और उसी की देखरेख में, साक्षित्व में, उसी की अधिष्ठानता में, यह सारी-की-सारी सृष्टि होती है। उसके सम्बन्ध के बिना तो कोई सृष्टि है ही नहीं। रही बात सृष्टि होने की प्रक्रिया, तो प्रक्रिया के सम्बन्ध में जो विचारशील महापुरुष हों, वे अनुमान करते हैं। प्रत्यक्ष के आधार पर जितने अनुमान होते हैं, वे सब दूसरे के बारे में होते हैं। अपने स्वरूप के सम्बन्ध में अनुमान नहीं होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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