गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 2
उपनिषदों में बार-बार आता है - य एवमुपासते य एवं वेद - जो ऐसी उपासना करता है और जो ऐसा जानता है। दोनों का फल एक होता है। क्योंकि उपासना में मन की प्रधानता रहती है और जानने में बुद्धि की प्रधानता रहती है। आप जानते हैं - जिस वस्तु को आप अच्छी समझते हैं उसको पाने की इच्छा होती है। जिस वस्तु को बुरी समझते हैं उसको त्यागने की इच्छा होती है। पाने की और त्यागने की इच्छा यह मन का काम है। और समझना कि क्या अच्छा है क्या बुरा यह बुद्धि का धर्म है। इच्छाओं का उदय होता है समझदारी के अनुसार। परन्तु समझदारी में दो विभाग हो जाते हैं। एक सुख-प्रधान विभाग और एक सत्य-प्रधान विभाग। जहाँ हम सत्य और सुख दोनों को अलग-अलग कर देते हैं, ब्रह्मचर्य सत्य है, परन्तु सुख तो भोग में है, वहाँ हमारी बुद्धि के दो खण्ड हो जाते हैं। एक तो सत्य का पक्षपात करती है और दूसरी बुद्धि सुख की ओर आकृष्ट करती है। सत्य तो ईमानदारी में हैं, लेकिन बेईमानी में तो बहुत आमदनी है, उसमें सुख है। तो बुद्धि के दो खण्ड हो गये। एक सत्यपक्षपातिनी ईमानदारी की बुद्धि और एक सुखपक्षपातिनी बेईमानी की बुद्धि। उसमें हम स्वयं अपने को किस बुद्धि के साथ जोड़ते हैं, किसके अनुसार जीवन चलता है। यदि सत्य और ईमानदारी के पक्ष में बुद्धि हो तो कष्ट सहना अच्छा लगेगा; परन्तु बेईमानी करना अच्छा नहीं लगेगा। और यदि तात्कालिक सुख भोग की ओर बुद्धि की प्रवृत्ति हो गयी तो कष्ट सहना अच्छा नहीं लगेगा। तत्कालिक सुख भोग जिससे मिले वह काम करने की इच्छा होगी। अब यहाँ तो चर्चा है कि परमात्मा के ज्ञान की। यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 10.3
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