गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 9
क्या बोलने की शैली है? द्वाविमौ’- दो हैं और ये हैं। माने एक नही दो हैं और दोनों परस्पर विलक्षण हैं और य हैं माने दोनों दृश्य हैं। और दोनों को जो देखने वाला है सो? वह दोनों से निराला है। ‘द्वाविमौ’- ये दोनों कौन हैं? तो दोनो पुरुष-और नाम है इनका क्षर-अक्षर। संस्कृत भाषा में-स्त्री-पुरुष का विभाग जैसा व्यवहार में होता है, ऐसा नहीं है। पुरुष माने जीवात्मा। वह चाहे स्त्री के शरीर में हो चाहे पुरुष के शरीर में हो। उसको पुरुष ही कहते हैं। धर्मशास्त्रियों की बात दूसरी है, दर्शनशास्त्रियो की बात दूसरी है। दर्शन शास्त्र में खांड की कठपुतली बनायी, स्त्री बनायी कि पुरुष बनाया, दोनों खांड हैं। दर्शन शास्त्र में स्त्री, पुरुष का शरीर बना-चाहे स्त्री का हो चाहे पुरुष का-दोनों प्रकृति का कार्य है। ईश्वर ने बनाया, दोनो को बनाया। प्रकृति से बने, दोनों बने। यह तो बहुत बाहरी स्तर पर स्त्री–पुरुष की लड़ाई और उनकी श्रेष्ठता, कनिष्ठता-अधिकार-अनधिकार की बात होती है। ऐसा लगता है कि नरक में रहकर आये हैं, उसकी चर्चा कर रहे हैं। जरा कड़वी बात है। क्या करना है? पुरुष का अर्थ हुआ- ‘पुरुषतादात्म्यापन्नौ’ जब आत्मा इनसे एक हो जाती है तब इनका अनुभव करती है। चर से तादात्म्यापन्न हुई तो पशु, पक्षी, वृक्ष के रूप में चल फिर रही है और पत्थर से तादात्म्यापन्न हुई तो टिकी हुर्ह एक जगह पड़ी है। दोनों पुरुष से हि दिखते हें, पुरुष में ही है, पुरुष से ही उनकी सत्ता है। पुरुष माने आत्मा। थोड़ी टेढ़ी बात है। एक है क्षर और एक है अक्षर। ऐसे समझ लो कि घड़ा क्षर है, ‘क्षरति’- टुट जाता है और अक्षर मिट्टी है- ‘न क्षरति’। घड़े के फूट जाने पर भी मिट्टी ज्यों-की-त्यों रहती है। यों समझो कि पानी का बुलबुला क्षर है और पानी अक्षर है। यो समझो कि आग की लपटें उठती हैं, चिनगारियाँ हैं और लपटें हैं, वे क्षर है और जो सब में व्यापक गरमी हैं, ऊष्मा है सो अक्षर है। संसा के रूप मे जो वायु चलती हैं, पखे से जो निकलती है, वह क्षर है। और जो वायुतत्त्व है वह अक्षर है। जो घटाकाश, मठाकाश के रूप में दिखता है, वह क्षर है और जो महाकाश के रूप में दिखता है, वह अक्षर है। अब उधर छोड़ दो। आँख से जो घड़ा दिखता है वह क्षर है। और उस को देखने वाली आँख अक्षर है। देखने वाली आँख क्षर है और मन अक्षर है। और मन क्षर हैं और बुद्धि अक्षर है। बुद्धि क्षर है और अपना आत्मा जो है वह अक्षर है। दो हैं। दुनिया में चीजें दिखायी पड़ती हैं। एक का नाम है अपरा प्रकृति-पृथिवी, जल, वायु आकाश आदि और एक नाम है परा प्रकृति। जीवभूत-एक हो गया-दो पुरुष हो गये। यहाँ दो प्रकृति हो गयी। एक हुआ क्षेत्र, एक हुआ क्षेत्रज्ञ। एक हो गया नपुंसक। एक हो गया पुरुष। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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