गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 3
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता। गीता भगवान का हृदय है, ऐसा उसके माहात्म्य में कहा गया है- गीता मे हृदयं पार्थ- अर्जुन, गीता मेरा हृदय है। भगवान ने इसको बहुत प्रेम से सँजोकर रखा था। पर जब अर्जुन को शोकग्रस्त-शोकसंविग्नमानसः देखा तो भगवान के भीतर बड़े प्रेम से सँजोयी हुई गीता स्वयं छलक पड़ी। भगवान ने स्वयं गीता को अपने हृदय से बाहर नहीं निकाला, वह भगवान के काबू में नहीं रही। भगवान के वश में सारी सृष्टि है, परन्तु उनकी करुणा उनके वश में नहीं। यह परमेश्वर की एक लीला है। मुखपद्माद्विनिःसृता का अर्थ ही है कि वेद की अपेक्षा भी गीता में कुछ सौन्दय है। वह क्या है? भगवान की नाभि से निकला एक कमल, कमल पर हुए ब्रह्मा, ब्रह्मा के मुख से निकले वेद। तो नाभि एक तो मुख से नीचे है। दूसरे गीता स्वयं भगवान के मुख कमल से साक्षात् निकली। तो वह ब्रह्मा और वेद दोनों की अपेक्षा अपने सौन्दर्य को अधिक प्रकट करती है। हृदय की वस्तु नाभि में गयी, नाभि से कमल में और कमल से ब्रह्मा में प्रकट हुई- यह वेद की परम्परा है। वेद भी भगवान के हृदय से ही प्रकट हुआ। परन्तु उसके पहले कई लोग आ गये। गीता हृदय से मुख में आकर प्रकट हुई। ज्ञान का स्थान मुख ही है। आप जानते हैं कि विराट-भगवान के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई! तो कान मुख में, हाथ मुख में, नासिका मुख में, रसना मुख में, त्वक् मुख में- ये सब ज्ञान के साधन हैं। ज्ञान प्रधान विराट का अंग है मुख। ज्ञान के अधिकांश साधन शरीर के उर्ध्व भाग में ही निवास करते हैं। इसलिए उसका प्राकट्य भगवान के मुख कमल से ही होना चाहिए। तो गीता विशेष हो गयी। जैसे हिन्दी में विशेषता बोलते हैं वैसे संस्कृत में विशेष बोलते हैं। अर्जुन और श्रीकृष्ण का जो सम्बन्ध है वह बहुत मधुर है। महाभारत में कहा है- नारायणो नरश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम्। एक तत्त्व है, एक सत्ता है, और नर-नारायण अर्जुन-कृष्ण दोनों के रूप में प्रकट हुई है। नर और नारायण माने जीव और ईश्वर। अर्जुन जीव है तो श्रीकृष्ण ईश्वर हैं। जीव-ईश्वर दोनों एक ही तत्त्व हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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