गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 5
यह है भगवान की करुणा-अपने भक्त को यदि अपने को छोटा बनाकर भी ठीक रास्ता बताना पड़े तो छोटा बनकर भी रास्ता बताना चाहिए। रथी अर्जुन और सारथि भगवान। रथी तो बड़ा होता है और सारथि छोटा। परन्तु यदि किसी का कल्याण करने के लिए, भला करने के लिए कभी अपने बड़प्पन को छोड़कर छोटा भी बनना पड़े तो उसको स्वीकार कना चाहिए। नर का हित करने के लिए नारायण सारथि बने हैं। अर्जुन हैं नर और श्रीकृष्ण हैं नारायण। नारायणो नरश्चैव तत्त्वमेकं द्विधा स्थितम्। [1] एक ही तत्त्व दो रूप में एक ही परब्रह्म परमात्मा जीव और ईश्वर दोनों के रूप में स्थित है। यह उसका उपलक्षण है। परब्रह्म परमात्मा है एक और जीव और ईश्वर ये दोनों उसके विभाग हैं। हमारे एक मित्र थे वृन्दावन में। वे कहते थे गीता कोई शास्त्र थोड़े ही है। यह तो दो मित्रों की बात-चीत है। एक मित्र को युद्ध के समय विषाद हो गया और दूसरे ने उसको प्रसाद दे दिया। गीता प्रसाद है। अर्जुन को हुआ विषाद और श्रीकृष्ण ने दिया उसको प्रसाद। जब उसने अपने बुद्धि की जीभ से असका आस्वादन किया तो वह भी हॅंस पड़ा। जैसे एक मित्र उदास हो रहा हो, विषण्ण हो रहा हो और दूसरा उसके कन्धे पर हाथ रखकर और बड़े प्रेम से समझा दे कि यह समय विषण्ण होने का नहीं है। इस समय तो तुम अपना पौरुष दिखाओ। पौरुष के लिए उत्साहित करने वाले मित्र हैं-श्रीकृष्ण। वह प्रेरणा देते हैं, प्रेरक हैं। भक्तोसि में। श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं तुम हमारे इष्ट हो-तुम हमारे मित्र हो, तुम हमारे सखा हो और तुम्हारे रूप में मैं ही हूँ। ‘पाण्डवानां धनंजयः’।[2] इसलिए दोनों की बातचीत बड़े प्रेम से सुनना और समझना चाहिए। ‘यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि’-श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो तुमसे द्वेष करते हैं वह मुझसे द्वेष करता है। जो तुम्हारे पीछे चलता है वह मेरे पीछे चलता है। आओ; तुम हमारी विभूति और योग सुनना चाहते हो तो तुम्हें योग और विभूति सुनावें। आप भागवत के साथ गीता को मिलाइये। भागवत में मौत का पता चल जाने के बाद कि कब होगी, राजा परीक्षित सब कुछ छोड़कर गंगा-तट पर विराजमान हैं। और शुकदेवजी-जैसे अवधूत उनको भागवत का उपदेश दे रहे हैं। वहाँ प्रवृत्ति का प्रश्न नहीं है, वहाँ तो निवृत्ति का प्रश्न है, मरणोत्तर गति का प्रश्न नहीं है यहाँ प्रश्न यह है कि कुरुक्षेत्र में जहाँ कर्त्तव्य-पालन और कर्त्तव्य-त्याग का प्रश्न उपस्थित है युद्ध करें कि न करें? ‘प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते’।[3] दोनों ओर से हथियार चलने वाले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व 49.21
- ↑ 10.37
- ↑ 1.23
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