गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 1
गीता सुगीता है। आओ, हम गीता के संगीत का अभ्यास करें। जैसे गायक लोग संगीत का - उसके आलाप का और उसकी राग-रागिनी का चिरकाल तक बार-बार अभ्यास करते हैं। वैसे ही हमें भी गीता-संगीत का अभ्यास करना चाहिए। गीता सुगीता का कर्त्तव्या: अद्भुत प्रसंग है। पहले वेदान्त का उपदेश अरण्य में होता था। आराण्यक विद्या बोलते हैं - इसको। संस्कृत में वेदान्त का नाम आरण्यक विद्या है। अधिकांश उपनिषद् आराण्यक हैं। अरण्य में उनका प्रकाश हुआ है। अरण्य शब्द का अर्थ है जहाँ रण न हो। जहाँ लड़ाई-झगड़ा होता हो वहाँ वेदान्त सुनने को मिले तो किसको ग्रहण होगा? वह लड़ाई-झगड़े में पड़ने वालों की - राग-द्वेष करने वालों की विद्या नहीं है। परन्तु गीता ने इस परम्परा को छोड़ दिया। वह अरण्य में नहीं, रणभूमि में प्रकट हुई। एकान्त में वेदान्त चिन्तन करना एक विभाग है और रणभूमि में वेदान्त-चिन्तन करना दूसरा विभाग है। यह दूसरा विभाग रिक्त था। श्रीकृष्ण ने इसकी पूर्ति कर दी। जरा सोचो तो सही, युद्धभूमि में वेदान्त! कितना विरोधावास है दोनों में? एक बात पर आप ध्यान दें - हमारे वेदों में, ब्राह्मणों में, आरण्यों में जो धर्म की विद्या है वह यज्ञशाला की प्रधानता से है। यज्ञशाला बनाओ, हवन करो, वेद के मन्त्रों का उच्चारण करो। उसमें कौन अधिकारी है कौन अनधिकारी - इसका ध्यान रखो। वेद मन्त्र शुद्ध बोले जावें। यज्ञ की सामग्री शुद्ध हो। यजमान, पण्डित योग्य होने चाहिए। पवित्र भूमि, पवित्र काल होना चाहिए। जब बड़ी पवित्रता से यज्ञ करते हैं तब धर्म होता है। यह यज्ञशाला की प्रक्रिया वाले हैं। इसके अतिरिक्त तीर्थ में जाओ। दान करके लौटो तो धर्म होगा। अमुक दिन उपवास करो तो धर्म होगा। अमुक अनुष्ठान कर लो तो धर्म होगा। तात्पर्य यह कि धर्म यज्ञशाला और कर्मकाण्ड में सीमित हो गया। किन्तु गीता ने उस धर्म को जीवन के कर्म क्षेत्र में स्थापित कर दिया। यही गीता की विशेषता है। युद्धभूमि में वेदान्त और जीवन की प्रत्येक क्रिया में, उसके सम्पूर्ण क्रिया-कलाप में धर्म! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज