गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 4
एक सिद्धान्त ऐसा है कि सब वस्तुओं के परमाणु अलग-अलग होते हैं; पृथ्वी के परमाणु, जल के परमाणु। परन्तु सांख्य सिद्धान्त कहता है कि कारणावस्था में सब एक ही होता है। अलग-अलग कण नहीं हैं, सब कणों को नचाने वाली और कणों के रूप में रहने वाली एक मूल शक्ति है, उस शक्ति का नाम प्रकृति है। वही सबका मूल है। जितने भी अलग-अलग बीज हैं, अलग-अलग जीवों के शरीर हैं, वे सब एक ही तत्त्व के विलास हैं और उसका नाम है प्रकृति। जड़वादी लोग मानते हैं कि प्रकृति ही सारा काम करती है, प्रकृति से ही यह वायु चलती है, प्रकृति से ही सूर्य-चन्द्रमा बनते हैं, ये सब प्रकृति का काम है। मनुष्य की प्रकृति अलग, पशु की अलग और मूल में सारी प्रकृतियाँ एक हो जाती हैं। नास्तिक लोग सारा काम प्रकृति का स्वीकार करते हैं और विज्ञान शक्ति की एकता को स्वीकार करते हैं और इसी से सारी सृष्टि बनती है, ऐसा मानते हैं। हमारा दर्शन शास्त्र है यह प्रकृति की एक साक्षी-दशा चेतन स्वीकार करता है, जिसके सामने यह प्रकृति कभी शान्त होती है और कभी विक्षिप्त होती है। इसकी दो मुद्रा हैं। जैसे समुद्र कभी शान्त हो गया और कभी लहराने लगा। ऐसे प्रकृति कभी शान्त हो जाती है, कभी विक्षित हो जाती है। पर इस सबको जानने वाला एक पुरुष रहता है। वह नियन्त्रण तो नहीं करता परन्तु देखता है। वह दर्शक है। गीता ऐसी प्रकृति स्वीकार नहीं करती जो स्वतन्त्र हो। गीता में जो प्रकृति है, उसका एक मालिक है। उसकी देखभाल करने वाला है। यह बात आगे वाले श्लोक बतावेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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