गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 7
अतः जरा इन्द्रियों से, मन से, बुद्धि से परे होकर थोड़ी देर बैठिये। पाँच मिनट द्रष्टा और साक्षी होकर बैठ जाइये। इनसे अलगाव का अनुभव कीजिये। अपने को रागद्वेष युक्त बुद्धि से राग-द्वेषयुक्त मन से, रागद्वेषयुक्त इन्द्रियों से अलग करके देखिये। फिर आप देखेंगे कि इनमें कितना रागद्वेष है और ये कितने त्याज्य हैं। एवं बुद्धे परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि का अर्थ होता है मार डालो और जहिहि का अर्थ होता है छोड़ दो; सम्बन्ध त्याग का भाव ‘जहिहि’ में है। इन्द्रियाँ नहीं मरती, मन नहीं मरता, बुद्धि नहीं मरती- इसमें जो शत्रुपन रह रहा है वही मरता है। अतः आप जिस शत्रु के वशवर्ती होकर अपना व्यवहार चला रहे हैं उसे आत्मज्ञान की तलवार से नष्ट कर दीजिए और अपने जीवन में शुद्ध व्यवहार की प्रतिष्ठा कीजिए। अब इसके बाद आता है अवतार का प्रसंग। वह अद्भुत है। हमने सोचा कि अब एक ही बार में सारी गीता को भागवत के सप्ताह की तरह क्या सुनना! आप सुनते रहो और हम सुनाते रहें। मैंने कहीं पढ़ा था, एक जवान आदमी ने चर्चिल की वर्षगाँठ के दिन जब यह कहा कि ईश्वर करे हम आपकी सौंवीं वर्षगाँठ मनावें, तो चर्चिल ने मुस्कराकर उत्तर दिया- ‘हमको थोड़ी-थोड़ी उम्मीद तो है कि तुम तब तक रहोगे।' आप लोगों की सुनने की इच्छा बनी रहे। आप लोग उम्मीद रखें कि हम सुनाने वाले भी बने रहेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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