गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 7
शान्ति कैसे मिलती है, इस पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हैं। गीता में जीव स्वयं प्रयत्न करके शान्ति प्राप्त करे, यह बात कही गयी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ईश्वर की शरण में जाओ, उसकी कृपा से शान्ति मिलेगी। अर्जुन कहते हैं कि मुझे तो तुम्हारी कृपा से, तुम्हारे प्रसाद से, शान्ति मिलती है। इस प्रकार एक ही वस्तु को देखने के लिए भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होते हैं। ‘युक्तः कर्मफलं त्यकत्वा’- हम अपना कर्तव्य समझकर कर्म करते जायें। कर्म प्रयोजनीय अवश्य है, परन्तु उसके फल में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। बिना प्रयोजन के मूर्ख-से-मूर्ख मनुष्य भी किसी काम में प्रवृत्त नहीं होता। तो इस काम से किस प्रयोजन की सिद्धि होगी- यह बात अवश्य ही ध्यान में रख लेने की है। निष्काम, निष्काम की रट लगाने वाले सोचते हैं कि निष्काम का अर्थ निष्प्रयोजन होता है। किन्तु यह ठीक नहीं। अमुक काम करने से हमारे अन्दर कौन-सी वृत्ति उत्पन्न होगी और वह हमें अभीष्ट होगी कि नहीं, यह विचार अनिवार्य है। कर्म करने से वस्तु मिले या न मिले- यह बात दूसरी है; परन्तु कर्ता के अन्तःकरण में फलवृत्ति का उदय अवश्य होगा। प्रश्न यह है कि आप कैसी फलवृत्ति चाहते हैं? घृणा चाहते हैं? आलस्य चाहते हैं? प्रमाद चाहते हैं? द्वेष चाहते हैं? ऐसा तो कोई नहीं चाहता। हमारी स्वाभाविक चाह आनन्द की उपलब्धि है और उसी के लिए प्रयोजन विचार अपेक्षित है। प्रयोजन वह होता है जो कर्म करने के बाद कर्ता के अन्तःकरण में चिपक जाता है। शुद्ध प्रयोजन का स्वरूप ऐसा है कि ‘अवगतं सद् आत्मनि इष्यते’- उसका ज्ञान होते ही आकांक्षा होती है कि बस, अब यह हमारे साथ ही रहे। निष्काम का अर्थ क्या है? आप निष्काम भाव से भगवान के सामने खड़े हो जाइये और ‘पापोऽहम्’ कहिये। यह भगवान के सामने कहिये, दुनिया में और किसी के सामने बोलने की जरूरत नहीं। अब विचार कीजिये कि इस प्रार्थना का यही फल है कि हमने तुम्हारे सारे पाप माफ कर दिये। भगवान् बोलें या न बोलें- यह 'पापोऽहम्' का प्रयोजन नहीं। प्रयोजन यह है कि आप भगवान के सामने जिस विश्वास से 'पापोऽहम् पापकर्माऽहम् बोल रहे हैं, उसी विश्वास के साथ आपके अन्तःकरण में इस वृत्ति का उदय हो उसी विश्वास से इस वृत्ति का अंकुर निकले कि 'निष्पापोऽहम्।' यही प्रतीकोपासना का फल, अहंग्रहोपासना है। अपने ईश्वर के सामने हाथ जोड़ लिया और आपके भीतर से यह भाव निकला कि मैं निष्पाप हो गया। पापोऽहम् बोलता है जीव और बोलवाता है उसके भीतर बैठा हुआ ईश्वर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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