गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 5
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में बुद्धि पर बहुत बल दिया। कर्म-बुद्धि को भी बुद्धि कहा, सांख्य-बुद्धि को भी बुद्धि कहा। हमारे दार्शनिकों ने यह अनुसंधान किया है कि मनुष्य कर्म में तभी प्रवृत्त होता है जब उसके मन में कोई-न-कोई इच्छा होती है। सभी को ठीक तरह से सन्चालित करने वाली शक्ति का नाम इच्छा है। इच्छा होती है ज्ञान के अनुसार। जानाति, इच्छति, करोति-मनुष्य पहले समझता है, फिर छोड़ने या ग्रहण करने की इच्छा करता है, तत्पश्चात् उस इच्छा के अनुसार प्रयत्नशील होता है। निष्कामता का अर्थ जड़ता नहीं, निष्फलता भी नहीं। यदि कोई कर्म बिना प्रयोजन किया जायेगा तो पानी पीटने के[1] समान निष्फल जायेगा, शक्ति का अपव्यय होगा। इसलिए कोई भी कर्म प्रारम्भ करने के पूर्व यह विचार कर लेना चाहिए कि उससे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी, उसमें क्या-क्या विघ्न पड़ेंगे और उन विघ्नों को हम कैसे पार करेंगे? वे लोग अधकचरे होते हैं जो निष्काम का नाम सुनकर चौंक जाते हैं।
प्रत्येक क्रिया का एक परिणाम होता है। दूध का मन्थन करने पर क्रीम निकलती है। दही के मन्थन से नवनीत निकलता है। मन्थन एक कर्म है। यदि आपको यह ज्ञात नहीं कि दूध-दही के मन्थन का परिणाम क्या होगा तो मन्थन-क्रिया निष्फल हो जायेगी। इसलिए कोई कर्म करना हो तो पहले उसका अनुबन्धन समझना चाहिए। अनुबन्ध में चार बातें विचारणीय हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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