गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 2
प्रश्न: परां सिद्धिमितो गताः-भगवान के कथन के इस ज्ञान को जानकर मुनियों को भी परम सिद्धि मिलती हे। सिद्धि और परम सिद्धि को समझाने की कृपा करें। उत्तर: जनक आदि जो महापुरुष हुए हैं उन्होंने कर्म से ही संसिद्धि प्राप्त की है। ‘स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धिं विन्दति मानवः।’ अपने कर्म के द्वारा परमात्मा की आराधना करो, सिद्धि मिलेगी। वहाँ तो ‘जनकादयः’ विशेष नाम है और यहाँ तो किसी का नाम नहीं है। यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम। मनुष्य मात्र को सिद्धि मिलती है और सिद्धि भी सब तरह की। तैत्तिरीय उपनिषद् में उपनिषद् के पाठा का जो फल बताया है उसमें ‘अन्नवान अन्नादो भवति[1] कहा गया है। अन्न माने भोग की सामग्री बहुत होती है और भोग का सामर्थ्य भी होता है। यह उपनिषद् का फल दिखाया। आश्यर्च है माने किसी के पास रोटी तो बहुत है पर पचता नहीं, खाने का सामर्थ्य नहीं है। सन 36 में हमलोग एक सेठजी के घर गये थे। बहुत दुबले-पतले हो गये थे। धूप में सबेरे लेटते थे। दो घण्टा मालिश होती थी। रूखा एक या दो फुलका खा सकते थे। हमलोग जब भोजन करने बैठे (उस समय हमारी उम्र 24-26 वर्ष की होगी) हमलोग तो एक-एक सेर खीर खा जाते। वे आश्चर्य चकित हो जाते। अन्नवान होना और अन्नाद होना। भाग की सामग्री हो, भोग का सामर्थ्य हो और ‘प्रजया पशुभिर्बह्मवर्चसेन’ (तै. उप. 3.9) इसलिए उपनिषद् कहता है-धर्म हो, प्रजा अनुकूल हो, घोड़ा, गाय हो, (आजकल मोटर समझ लो) ब्रह्मचर्य हो-यह तैत्तिरीय उपनिषद् का फल उपनिषद् में ही कहा है। यह जो अध्यात्म विद्या है, वह केवल स्वर्ग की प्राप्ति के लिए नहीं है; न तो बैकुण्ठ में जाने के लिए है। इस लोक में भी सुखी रहें और परलोक में भी सुखी रहें इसके लिए कौन-सी सिद्धि चाहिए? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3.9
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