गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 10
वहाँ अर्जुन ने एक प्रश्न कर दिया कि यदि कोई शास्त्रविधि को छोड़ दे और केवल श्रद्धा से काम करे तो उसको सफलता मिलेगी कि नहीं? ये शास्त्रविधि मुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। अद्भुत है यह-ये जो बड़े-बडे पीठाधीश्वर लोग हैं, वह इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं। कोई शास्त्र नहीं जानता है। शास्त्र की विधि नहीं जानता है। शास्त्र की विधि छोड़ देता है। लेकिन उसके हृदय में श्रद्धा है और वह अच्छा काम कर रहा है तो उसकी क्या स्थिति होगी? तब उन्होंने सत्त्व, रज, तम श्रद्धा का विभाग करके- सात्त्विक श्रद्धा से उसका कल्याण ही होगा- भले उसने शास्त्रविधि छोड़ दी हो। और अठारहवे अध्याय में सारी गीता का जो सार-सार है- संग्रह, प्रथम अध्याय से ले करके और पन्द्रहवें अध्याय तक जितनी भी बात कही गयी हैं और सोलहवें, सत्रहवें में भी जो बात कही गयी है, उसको भगवान ने इकठ्ठा करके उपसंहार अठारहवे अध्याय में रख दिया। सो यह गीता तो भगवान का हृदय है- ‘गीता से हृदयं पार्थ’ और उन्होंने बड़ा अनुग्रह करके, बड़ी कृपा करके, अपने को नहीं, अपने दिल को हम लोगों के प्रति समर्पित किया है और भगवान के इस हृदय का, इस सद्भाव का हम अपने जीवन में लाभ उठावें, उन्नति करें, हमारा जीवन मंगलमय हो, भगवन्मय हो, आनन्दमय हो अमृततिमय हो, रसमय हो, मधुमय हो, लास्यमय हो। थिरकते हुए अपना जीवन व्यतीत करें। इसी प्रार्थना के साथ हम इस प्रसंग को समाप्त करते हैं। धन्यवाद देने की तो आवश्यक्ता है नहीं-किसको कौन दे? अपनी बेटी को, अपने बेटे को कोई धन्यवाद थोड़े ही देते हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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