गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 9
हमारे शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, गीता सब ऐसे भगवान का प्रतिपादन करते हैं जो न हमसे दूर है, न जिसके मिलने में देर है, और न हमसे दूसरा है। यह संसार के सब ईश्वरवादी मजहबों से अलग है। ईश्वर से मिलने में देर नहीं, ईश्वर हमसे दूर नहीं - ईश्वर दूसरा नहीं। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्। हम सब जिसके भीतर हैं, माने उसका इतना बड़ा पेट है कि उसके पेट में हम समाये हुए हैं, उसका इतना बड़ा दिल है कि हम उसके दिल में हैं - ऐसा ईश्वर और येन सर्वमिदं ततम् - यह जो कुछ है, सबमें वह - कपड़े में सूत की तरह व्याप्त है, भरपूर है। यही मूर्ति पूजा का मौलिक तत्त्व यहाँ है। जिनका ईश्वर निराकार होता है, नितान्त निराकार, उसमें साकार होने का सामर्थ्य ही नहीं है। वे लोग मूर्ति को प्रतीक मानकर उसकी पूजा करते हैं। यह प्रतीक वाली भाषा निराकारवादियों से आयी है और हम लोग ईश्वर को नितान्त निराकार नहीं मानते। जितने आकार हैं, सब ईश्वर के ही आकार हें, ईश्वर ही सब आकारों के रूप में प्रकट हैं। किसी भी आकार में हम ईश्वर की पूजा कर सकते हैं। जितनी मूर्तियाँ हैं सबकी सब ईश्वर की मूर्तियाँ हैं - यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। प्रेरक भी वही है - भीतर अन्तर्यामी - ‘यतः प्रवृत्तिर्भूतानां’ और ‘येन सर्वमिदं ततम्’। सबके रूप में भी वही है। आप मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजा कीजिए। ऊँ भूरसि, भूमिरसि - प्रचलित पूजा आप लोग करवाते हैं नीवं डालना होता है तो भूति की पूजा होती है - भूमि के रूप में परमेश्वर की ही आराधना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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