गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 5
अम्ब त्वां अनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्। अर्जुन श्रीकृष्ण के विश्व रूप का दर्शन कर रहे हैं। विश्व रूप का दर्शन कराया अर्थात सृष्टि, स्थिति, प्रलय सबको एक साथ भगवान ने दिखाया। इससे कोई भी ऐसी बात नहीं रह जाती जो भगवान के स्वरूप के बाहर हो। शरीर को ऊपर से देखते हैं तो चाम बहुत सुन्दर चिकना-चिकना दिखायी पड़ता है पर यह समग्र रूप का दर्शन नहीं है। इसके भीतर शिराएँ हैं, वायु भी चलती है, खून भी चलता है, माँस भी है, चरबी भी है। कोई-कोई देखने में बहुत बढ़िया भी लगते हैं। इसमें कोटि-कोटि कीटाणु हैं। कोई रोग के हैं, कोई आरोग्य के हैं। कोई सद्भाव का स्थान है-जैसे सिर का अलग भाग, कोई दुर्भाव का स्थान है जैसे सिर का पिछला भाग। कोई भूरे रंग का है, कोई सफेद रंग का है। हम अपने पूरे शरीर को ही ठीक-ठीक नहीं देख पाते हैं। यह तो विश्व रूप का माँडेल ही है। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। जैसा इस शरीर में है वैसा ही समूचे ब्रह्माण्ड में है। एक दिन हमारे रक्त की जाँच हुई। हमारे डॉक्टर मित्र ने हमको दिखाया कि उस दिन रक्त में सफेद कीटाणु बढ़ गये थे। फिर औषधि देने के बाद जब जाँच हुई तब दिखाया श्वेत कीटाणु कम हो गये और लाल कीटाणु बढ़ गये। उसी शरीर में मल भी होता है। मूत्र भी होता है। बहुत-से कीड़े मरते होते हैं, बहुत पैदा होते हैं। यदि हम इस नमूने को ठीक-ठीक जाँच करके देख लें तो यह जो विश्व की सृष्टि है, स्थिति है, संहार है इसका रहस्य हृदयंगम हो जाता है। लेकिन मूल बात तो यह है कि मनुष्य को अपनी ओर देखने की फुरसत, अवकाश ही नहीं है। यह हीरा, मोती देखता है, सोना, चाँदी देखता है, कल-कारखाना देखता है। खाना-पीना देखता है, पड़ोसी को देखता है पर जो सबको देखने वाला है, उसको नहीं देखता यदि इस शरीर को देखे तो विराट का ज्ञान होगा और यदि स्वप्न सहित अपने अन्तःशरीर, सूक्ष्म शरीर को देखे तो हिरण्यगर्भ-पर्यन्त सूक्ष्म समष्टि का बोध हो जायेगा। और यदि कारण शरीर को देखे तो प्राज्ञ अर्थात ईश्वर-पर्यन्त सृष्टि का बोध हो जायेगा। और यदि अपनी शुद्ध आत्मा को देखें तो ब्रह्मत्व का बोध हो जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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