गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 7
अम्ब=माँ। गीता माँ है। ‘अम्बा’ शब्द का अर्थ होता है वर्णात्तमक अ, आ, इ, ई - क, ख, ग अक्षरों-वर्णों, शब्दों से ही जिसकी मूर्ति बनी हो उसको बोलते हें अम्बा। इसी का सम्बोधन होता है - ‘अम्ब!’ गीता क्या है? वर्णात्मक है। इसका अनुसन्धान क्या है? एक-एक अक्षर का अनुसन्धान, गौर से - गम्भीरता है। अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: । भगवान कहते हैं - ‘मैं उस योगी के लिए सुलभ हूँ। किस योगी के लिए? जो अनन्यचेताः नित्य, सतत मेरा स्मरण करता है। वह कोई भी हो स्त्री हो, पुरुष हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो। स्वदेशी हो, परदेशी हो। इसमें कोई भेद नहीं है। हमारे भगवान शंकरचार्य और उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य दोनों इस बात का निर्णय देते हैं कि शरीर से काम करना हो तब शारीरिक अधिकार-पर विचार करना चाहिए और जब मन से काम करना हो - जैसे भगवान का समरण। उसमें शारीरिक अधिकार पर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए और यदि वेदान्त का विचार करना हो तब तो शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु, अन्तःकरण की शुद्धि ही वहाँ अधिकार है। शारीरिक अधिकार - अधिकार नहीं होता। वहाँ जन्मभूमि का, जाति का, वर्ण का, आश्रम का कोई विचार नहीं, जिसमें शान्ति आदि सद्गुण हैं - वह इसका अधिकारी है।’ अनन्यचित्त का अर्थ क्या? चित्त है परन्तु उसमें अन्य नहीं। चेतस् माने ज्ञान तो है परन्तु इसमें परमेश्वर के सिवाय दूसरा कोई ज्ञेय नहीं है। ज्ञान है और परमात्मा रूप ज्ञेय है। इस-संसार में ज्ञान और ज्ञेय दोनों अलग-अलग होते हैं। जब जड़ अलग होता है तब वह ज्ञान का ज्ञेय होकर अलग हो जाता है। ज्ञेय से अलग होता है ज्ञान। जब परमात्मा अलग नहीं होता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद नहीं होता। यह एक दर्शन-शास्त्र का रहस्य है। इसी से गीता में-? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 8.14
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