गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 6
अपनी चित्तवृत्ति भगवदाकार होनी चाहिए। किस निमित्त से होती है इस पर विचार करने का कुछ अधिक कारण नहीं है। बाहर निमित्त कोई भी हो, पर हमारे हृदय की वृत्ति भगवदाकार होनी चाहिए। क्योंकि निमित्त तो बाहर ही रह जाता है और वृत्ति तो हमसे लगकर बनती है। मन में यदि भगवान हो तो बाहर कैसे भी आयें। एक महात्मा थे, उनकी ओर काला नाग बढ़ा आ रहा था। मौत सामने थी, वह कहते हैं - ओ हो, प्यारे से बिछुड़े बहुत दिन हो गया। उन्होंने हमको बुलाने के लिए दूत भेजा है। एक महात्मा के ऊपर शेर झपटा तो बोले कि यह देह हमको बहुत तकलीफ दे रहा है। बार-बार अपने में खींच लेता था। इसका अभ्यास बड़ा प्रबल हो गया था। भगवान ने इसे भेजा है। अब यह हमारे शरीर को खा जायेगा। अभ्यास का कोई कारण नहीं रहेगा। अपनी दृष्टि यदि ठीक हो तो रण में, वन में, जनसमूह में, शत्रु में, मित्र में, किसी से मिल के, किसी को भी देख के हम अपने हृदय को सद्भाव-सम्पन्न रख सकते हैं। थोड़ी जागरूकता चाहिए, सजग रहें तो सभी रूपों में भगवान का दर्शन हो सकता है। आराधना करने वाले कोई एक होकर आराधना करते हैं, कोई अलग रहकर आराधना करते हैं। कोई गणेश, गौरी, शिव, विष्णु, सूर्य इन देवताओं की आराधना करते हैं। आराधना हम किस नाम की कर रहे हैं और किस रूप की कर रहे हैं यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि उस रूप को देखकर हमारे हृदय में भगवान का स्मरण होता है कि नहीं - भगवदाकार वृत्ति होती है कि नहीं। जो लोग शिव और विष्णु को ही लेकर लड़ पड़ते हैं, उनके मन में भगवदाकार वृत्ति नहीं होती है। जो निराकार साकार को लेकर लड़ पड़ते हैं उनके मन में भी भगवदाकार वृत्ति नहीं होती। भगवान तो निराकार भी हैं साकार भी है निर्गुण भी हैं सगुण भी हैं, शिव भी हैं, विष्णु भी हैं। काली पोशाक पहनने से ये नहीं है कि, सफेद पोशाक पहनने से यह नहीं है - ऐसा नहीं है। जिसको काली पोशाक अच्छी लगती है उसके लिए भगवान ने काली पहन ली और जिसको सफेद पोशाक अच्छी लगती है, उसके लिए सफेद पहन ली। हम तो कइयों के बारे में जानते हैं कि वे दूसरे से पूछतें हैं कि आपको कौन सी पोशाक पसन्द है, हम वही पहनकर आपके सामने आवेंगे। ऐसे पूछते हैं। तब तक वही वस्त्र पहनेंगे जो तुमको भावे। ‘जा भेसा म्हारा सोई रीझे सोई भेष धरूँगी’। यहाँ मीरा का उदार हृदय है। तो भगवान का हृदय तो इससे कोटि-कोटि गुना उदार है। जिस भक्त के सामने आपा होता है, वैसी पोशाक पहन लेते हैं। वैसा मेकअप कर लेते हैं। पर हैं तो भगवान ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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