गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 3
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के दसवें अध्याय में एक विलक्षण वस्तु का वर्णन किया है। उनका कहना है कि मैं समाधि में भी हूँ और विक्षेप में भी मैं हूँ। परमार्थ भी मैं, व्यवहार भी मैं। जब यह बात मनुष्य की बुद्धि में ठीक-ठीक बैठ जाय कि महाप्रलय भी वही - महासृष्टि भी वही, यदि सर्वत्र भगवान की पहचान हो जाय, तो आदमी चाहे समाधि में रहे, चाहे व्यापार में करे, दोनों जगह उसको भगवान के दर्शन होते हैं। इसी को कहते हैं, योग और विभूति - विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।[1] यहाँ ‘च’ होने से दोनों अलग-अलग हो गया। भगवान का एक योग है और एक विभूति है। योग क्या है? बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः - ये भगवान के योग हैं और क्षमा सत्यं दमः शमः - ये विभूति हैं। विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन - भूयः कथय। भगवान ने दो बात बतायी है - योग और विभूति। भगवान ने स्वयं कहा - एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। इसका अर्थ है व्यवहार और परमार्थ दोनों में आप भगवान को देखिये। तत्त्व भी वही हैं और तत्त्व का विस्तार भी वही हैं। श्रीमद्भागवत में इसकी भी व्याख्या दी हुई है। पहले तो दृष्टान्त हैं - जैसे उपनिषद में हैं। जैसे एक सोने का पत्र है और उस पर चाहे ठप्पे से ठोककर चित्र उभार दिये जायँ - चाहे साँचे से ही सोने के पत्र पर एक मकान बनाया जाय। उस मकान में एक ओर शयनगृह है, भोजनगृह है। भोजनगृह में मेज है तो उसमें भोजन की सामग्री भी रखी हुई है। एक ओर बाथरूम भी है। उस मकान में कहीं मच्छर भी उड़ रह हैं। कहीं पेड़-पौधे भी दिख रहे हैं। है सब-का-सब सोना। सोना एक तत्त्व है और उसमें जो भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र हैं, मकान है, मन्दिर है, देवता है, पशु है, पक्षी है, वृक्ष है, लता है, स्वच्छ है, गन्दा है ये सब स्वयं की विभूति है, माने स्वर्ण में ऐसी योग्यता है कि उसमें आप कोई भी चित्र बना लो। एक है स्वर्णतत्त्व और एक है उसकी योग्यता का प्रदर्शन। परन्तु कुल का कुल सोना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 10.18
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