गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 9
सबके अन्तर्यामी, सबके प्रेरक और सबके सारथि भगवान हैं। पर सबके सारथि होने में और अर्जुन के सारथि होने में थोड़ा अन्तर है। साधारण जीव के सारथि हैं भगवान अदृश्य रूप में सामान्य प्रेरणा देते हैं। भक्त के सारथि हैं भगवान-दृश्य रहकर। भक्त देखता है कि भगवान हमको प्रेरणा दे रहे हैं, आज्ञा दे रहे हैं, अनुज्ञा दे रहे हैं। और जो अभक्त हैं उनको दिखाई नहीं पड़ता। वैसे संचालक सबके भगवान ही हैं। जैसे वर्णन आता है‘-अग्निवैं’ वायुसारथिः’। अग्नि का सारथि वायु है। ‘अग्नि का सचिव कौन है? वायु। सचिव है, सारथि है-सारयति अश्वान्-जो घोड़े को चलाता है। पर अभक्तों को इस बात का पता नहीं चलता है कि प्रेरक कौन है? उपनिषदों में यह प्रश्न आया है कि किसकी प्रेरणा से हमारा मन कहीं जाता है? केनेषितं पतति प्रेषितं मनः[1] कौन हमारे प्राणों का संचालन करता है? किसकी प्रेरणा से हमारी आँखें देखती हैं? हमारे कान सुनते हैं। हमारी वाणी बोलती है। हमारा मददगार कौन है? क्या विडम्बना है जीवन की कि हम अपने उस सहायक को, उस सचिव को, उस सारथि को, उस मददगार को पहचानते नहीं है। सो जाने पर भी जो हमारा साथ नहीं छोड़ता है-हमारे जीवन की रक्षा करता है, मर जाने पर भी जो हमको मरने नहीं देता है, हमारे जीवन की गति को चालू रखता है। वह प्राणों का प्राण प्रभु हमारे जीवन का सखा है। वेद में एक मन्त्र आता है। जिसका भाव यह है कि जो अपने साथी और सचिव सखा को नहीं जानता है, उसको कुछ बोलने का भी अधिकार नहीं है। जिसको यह मालूम नहीं है कि वाणी के भीतर बैठकर हमारी वाणी को शक्ति कौन देता है, उसको वाणी का प्रयोग करने का भी अधिकार नहीं है। वही है अर्जुन का सारथि और यही है हमारा सारथि। ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’[2] जो हमारे बुद्धि को प्रेरित करता है। दो बात गायत्री में कही गयी है। एक तो वह सृष्टिकर्ता स्वयं प्रकाश है और दूसरे हमारे बुद्धि-वृत्तियों का प्रेरक है। एक प्रकार से महावाक्य भी आ गया इसमें और यह भी बात बता दी कि तुम विश्व के मूल में जाकर परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकते। यहीं अपने अन्तःकरण के मूल में बैठकर परमात्मा का साक्षात्कार करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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