गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 7
यह आपको बताया जा चुका है कि वेद को श्रुति कहते हैं और गीता को स्मृति। श्रुति में वक्ता की प्रधानता नहीं होती, वचन की प्रधानता होती है। सच तो यह है कि उसमें वाच्य की प्रधानता नहीं होती, क्योंकि जिस वस्तु का वर्णन है वह वचन से अतीत है। वचन का विषय नहीं होता। वक्ता से विलक्ष्ण अर्थ का बोध और वाच्य से भी विलक्षण अर्थ का बोध वचन के द्वारा होता है। यह श्रुति की विशेषता है। स्वयं अपने तात्पर्य का इशारा करके शान्त हो जाती है। स्मृति में वक्ता की महिमा होती है, वचन की महिमा होती है, उसके वाच्यार्थ की महिमा होती है तथा उसमें जो निश्चय किये जाते हैं उनकी महिमा है। गीता रूप स्मृति का वक्ता केसा है, तो प्रपन्नपारिजात है। प्रपद माने पाँव के दोनों पंजे और प्रपन्न माने पकड़ने वाला। तो आप भी दोनों हाथ से श्रीकृष्ण के पाँव को, भगवान के चरणारविन्द को पकड़ो। वे कल्पवृक्ष हैं। उनसे जो चाहो मिलेगा। अर्थ चाहो, धर्म चाहो, काम चाहो, मोक्ष चाहो, सब मिलेगा। वे अपने हाथ में संयम और शासन दोनों लिए हुए हैं, तोत्र है और वेत्र हैं - घोड़ों की बागडोर है और चाबुक है। आप उनको अपने जीवन का सारथि बना लो तथा अपने इन्द्रियों के संयम की बागडोर और शासन दोनो उनके हाथ में सौंप दो। उनपर उनके ज्ञान की मुहर लगा दो। भगवान के पास ज्ञानमुद्रा है। उसका एक अर्थ यह है कि उनका हाथ ज्ञानमुद्रा में है। दूसरा अर्थ यह है कि भगवान अपने ज्ञान की मुहर लगा रहे हैं, यह देख रहे हैं कि उनके ज्ञान के अनुसार तुम्हारा जीवन है कि नहीं? उपनिषद् गाय है और गोपाल कृष्ण उनमें - से गीतामृत का दोहन कर रहे हैं। साधारण गाय-सरीखी गाय नही, उपनिषद् है, दूध सरीखा दूध नहीं, अमृत है और ग्वाले–सरीखा ग्वाला नहीं, वह संयमी है तथा चाबुक हाथ में रखता है। जिसके जीवन-रथ के सारथि भगवान श्रीकृष्ण हैं उसका परम मंगल है। आज यह पुनरावृत्ति इसलिए करनी पड़ी कि एक श्रोताने इसके लिए आग्रह किया था। तो, आपके व्यवहार में दूसरे को असुविधा पहुँचाने वाले तत्त्व न हों। व्यवहार में तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए- एक तो किसी को दुःख न पहुँचे, दूसरा कोई बेवकूफ न बने और तीसरा किसी के चरित्र का नाश न हो। चरित्र हनन न करना सत् है, बेवकूफ न बनाना चित् है और दुःख न पहुँचाना आनन्द है। जो सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- यह सच्चिदानन्दमय व्यवहार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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