गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 2
युद्धभूमि में, जहाँ दोनों ओर से शस्त्रास्त्रों का प्रयोग होने ही वाला है, वहाँ बीच में बैठकर ब्रह्म की चर्चा करने वाले महापुरुष कितने अद्भुत होंगे; इस पर विचार कीजिए। आप लोग किसी व्यापार के काम से कार चलाते हो और आपका मन उस व्यापार-कार्य में उलझा हुआ हो तो क्या आप उसके बोझ से मुक्त होकर ब्रह्मचर्चा कर सकते हैं? कितना वश में होगा अर्जुन का मन, उसमें कितनी एकाग्रता होगी; जो सामने युद्ध-जैसा कठोर कर्त्तव्य उपस्थित होने पर भी ब्रह्मचिन्तन में संलग्न है। अर्जुन को कितनी निश्चिन्तता होगी। युद्ध की तो कोई परवाह ही नहीं है। युद्ध में जीत के सम्बन्ध में तो कोई शंका ही नहीं है। वह जानता है उसे विश्वास है कि यदि युद्ध होगा तो वह जीतेगा। उसके सामने प्रश्न केवल विवेक का है कि वह जो काम करने जा रहा है, वह ठीक है या नहीं और ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति में कहाँ तक सहायक है? इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब विचार प्रारम्भ हो गया तब उसे बीच में नहीं छोड़ना, अपितु अन्त तक, ब्रह्मपर्यन्त पहुँचा देना। जो विचार बीच में रह जाता है वह तो अधूरा है। विचार करना तो पूर्णतापर्यन्त करना। तो, यह, अरण्य नहीं है, रणभूमि है। जैसा कि बताया जा चुका है अरण्य शब्द का संस्कृत में सीध अर्थ होता है, शरण लेने योग्य। घर गृहस्थी से मुक्त होकर जिस जंगल की शरण लेते हैं और जहाँ वेदान्त-विचार करते हैं, आरण्यक विचार करते हैं, उसका नाम अरण्य होता है। वहाँ रण नहीं होता। अरण्य का दूसरा अर्थ यह हुआ कि अब रण नहीं होता। जहाँ वादविवाद है, कोलाहल है, मारपीट है, वहाँ वेदान्त-विचार नहीं होता। परन्तु यहाँ तो आप रणभूमि में बैठकर वेदान्त-विचार कर रहे हैं। जिज्ञासु भी कोई त्यागी, संन्यासी नहीं है। उसके हाथ में शस्त्रास्त्र हैं और हृदय में ममतास्पद लोगों को देखकर मोह है। वह मोह की निवृत्ति के लिए प्रवृत्त हुआ, परन्तु उसको ब्रह्मचर्चा में इतना रस आया - इतना रस आया कि रणभूमि भूल गयी, मोहास्पद भूल गये और ब्रह्मचिन्तन प्रारम्भ हो गया। आपके मन में जैसे सुख की जिज्ञासा होती है कि हमें सुख कहाँ मिलेगा, कब मिलेगा और कैसे मिलेगा, वैसे ही सत्य की जिज्ञासा होती है कि नहीं? अवश्य ही आपको सुख की इच्छा होती है, वह चाहे ज्ञान से मिले, चाहे अज्ञान से। चाहे सत्य से मिले, चाहे असत्य से। वेद, शास्त्र, धर्म की रीति यह है कि आप सुख को चाहें और प्राप्त भी करें, परन्तु असत्य से नहीं, सत्य से। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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