गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 10
वेद का, शास्त्र का, यह सनातन सिद्धान्त है कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ है नहीं। अर्थात् परमात्मा ही सब कुछ है। जब हम कहते हैं कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है तो उसका अर्थ होता है कि रज्जु ही है, सर्प नहीं परन्तु यह सिद्धान्त है, महात्माओं का अनुभव। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। बहुत जन्मों के बाद ज्ञानवान् होता है और ज्ञानवान् होकर सब वासुदेव हैं, यह अनुभूति होती है। जब हम महात्माओं के उदात्त और उदार सिद्धान्तों का वर्णन करने लगते हैं तो जिसकी दृष्टि महात्माओं के विस्तीर्ण अनुभव को नहीं ग्रहण करती है, उन लोगों को थोड़ा अटपटा-सा लगता है। सचमुच यह दृष्टि उत्तम कोटि की है। सर्वोत्तम है निरुत्तर, निरतिशय; पर महात्माओं की यह दृष्टि सबके हृदय में आजाय, ऐसा सुगम भी नहीं है और इसके लिए जो प्रयास करेंगे कि सब लोग इसी का अनुभव करे, उनको भी कष्ट ही होगा। रह गयी सिद्धान्त की बात तो इस सिद्धान्त का अनुभव करने के लिए अनन्य भक्ति चाहिए। अनन्य भक्ति का अर्थ है ऐसी भक्ति जिसमें भगवान के अतिरिक्त आपको जो दिखता है, उससे अपनी दृष्टि हटाते जाना। आपकी नजर में क्या ईश्वर मालूम पड़ता है? जो आपको स्वयं आपकी दृष्टि में ईश्वर मालूम पड़ता है? जो आपको स्वयं आपकी दृष्टि में ईश्वर न मालूम पड़े, आप स्वयं सोचें कि वह ईश्वर नहीं है, यह तो चोर है, यह तो भूत-प्रेत है, यह तो जड़ है, यह तो कोई छोटा-मोटा देवता है, तो उसके साथ अपने हृदय को मत जोड़िये। जब आप अपना दिल कहीं चस्पा कर देंगे, जैसे कहीं दिलचस्पी कर लेंगे तो वह आपके दिल में घर कर जायगा। आपकी रुचि क्या है? सर्वात्मा को, विश्वात्मा को, परमेश्वर के रूप में अनुभव करके सर्वथा राग-द्वेष विनिर्मुक्त, जीवन-मुक्त होने की है कि थोड़ा-थोड़ा राग-द्वेष रखकर अपनी रुचि के अनुसार बरतने की है, कि ईश्वर की रुचि में रुचि मिला देने की है? भक्ति चाहिए अनन्य और अनन्य भक्ति से आप समझ सकेंगे कि यह सब परमेश्वर है। केवल समझ नहीं सकेंगे, देख भी सकेंगे। और केवल देख ही नहीं सकेंगे उससे एकमेक हो सकेंगे। उसमें प्रवेश कर सकेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.19
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