गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 1
अम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्। भगवद गीता अम्बा है। अम्बा माने माँ। इसके मूल धातु का अर्थ होता है ‘वर्ण’। वर्णमयी माँ। पचास वर्णों से मातृ का बनती है। ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक। यह मातृ का है, माता है, स्वरों के रूप में, वर्णों के रूप में, उनसे बने पदों के रूप में, वाक्यों के रूप में-सब के प्रति स्नेह, वात्सल्य की वर्षा करने वाली, अमृत रस पिलाने वाली भगवद्गीता अम्बा है। इसका निवास भगवान का हृदय है। भगवान को भी साकार रूप देने वाली यही है। यदि ये अम्बा न हो तो भगवान का रूप भी कोई नहीं जान सकता। यही स्वतन्त्र परावाक् के रूप में रहती हैं। मूलाधार में पश्यन्ती के रूप में आती है। मणिपूरक में मध्यमा वाक् के रूप में कण्ठ में आती है और वैखरी वाणी के रूप में आती हैं-मुख में जीभ पर इनको परा वाक कहो, मूल सरस्वती कहो, जगदम्बा कहो, ईश्वर की भी माँ कहो-इसी से गीता का निरूपण करते हैं। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता। भगवान ने यह कहा कि गीता! तुम हमारे हृदय में-से बाहर निकलो! तुम प्रकाशित हो जाओ-ऐसा भगवान ने नहीं कहा। यह स्वयं भगवान के मुँह से-मुखारविन्द से प्रकट हुई। अर्थात गीता का ज्ञान ईश्वराधीन ज्ञान नहीं है। यह स्वतन्त्र ज्ञान है। अपौरूषेय ज्ञान है। यह श्रीकृष्ण के द्वारा निर्मित नहीं है। यह जीव के द्वारा भी निर्मित नहीं है। यह ईश्वर निर्मित भी नहीं है। यह अनादि है, यह अपौरुषेय है। जब-जब श्रीकृष्णावतार होता है, प्रत्येक द्वापर में तब-तब एक ही ज्ञान प्रकट होता है। अनेक श्रीकृष्ण का अवतार होता है। अनेक श्री कृष्ण में जो ज्ञान रहता है वह एक होता है। वह एक ज्ञान प्रकट होता है। इस ज्ञान का नाम गीता है। भगवान श्रीकृष्ण इसकी रचना नहीं करते। इसका गान करते हैं। रचना करना दूसरी चीज है और गाना दूसरी वस्तु है। बना बनाया गाना गा दिया जाता है। इसे संगीत कहने का अभिप्राय है। यह मधुर है-यह ललित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज